उत्तर प्रदेश की योगी सरकार द्वारा मदरसों में स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में होने वाले कार्यक्रमों की वीडियोग्राफी कराने के निर्देश जारी करना सरकार की तरफ से यह पहला मौका जरूर है लेकिन आरएसएस व आरएसएस द्वारा समर्थित हिन्दू संगठनों द्वारा इस तरह के सवालात कई बार उठाया गया है जो कोई नई बात नहीं है लेकिन सबसे बड़ी दुर्भाग्य की बात तो यह है कि आज की तारीख में भारतीय मुसलमानों व मदरसों की देशभक्ति पर वही लोग सवाल उठा रहे हैं जिनके पूर्वजों व संगठनों का भारत छोड़ो आंदोलन व आजादी की लड़ाई में कोई अहम भूमिका नहीं रहा है। ये वही लोग थे जिन्होंने 1948 में तिरंगा को पैरों तले रौंद दिया था।
सिर्फ दो किताबें:- पहला आरएसएस के दुसरे सरसंघचालक एम एस गोलवालकर की किताब ” बंच ऑफ़ थॉट्स ” आज़ादी के अठारह साल बाद 1966 में प्रकाशित हुवी , बाद के एडिशन में भी वही बाते है जो मेरे पास जनवरी 2011 का ताजा एडिशन मौजूद है और दुसरा वर्तमान में 2017 में प्रकाशित मशहूर इस्लामी विद्वान व दारुल उलुम देवबंद में हिन्दुइज्म के प्रखर वक्ता मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी की किताब ” हिन्दुत्व अहदाफ व मसाइल ” का ही अध्ययन कर लिया जाए तो तथ्य बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्रीय झंडा तिरंगा को लेकर आरएसएस का क्या राय थी ?
इसी ” हिन्दुत्व अहदाफ व मसाइल ” के शीर्षक ‘ तिरंगे का मुखालिफ कौन ? मदरसा या हिन्दुत्ववादी सन्घ ‘ में उल्लेख किया है कि ” बीजेपी की मादर-संगठन आरएसएस 1930 और 1940 की दहाई में जब जंगे-आजादी पूरी सबाब पर थी तो उसमें शामिल नहीं हुई थी। 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी के कत्ल के बाद खबर आयी थी कि आरएसएस के लोग तिरंगे को पैरों तले रोन्ध रहे थे – इस तरह के सवाल से बचने के लिए आरएसएस ने ये रास्ता निकाला है कि दूसरों पर सवाल खड़े किए जाए “.
‘इन्कलाब जिन्दाबाद‘ का नारा देने वाले हसरत मोहनी, ‘जय हिन्द’ का नारा देने वाले आबिद हसन साफरानी, ‘तिरंगा’ को पूर्ण रुप देने वाले सुरेय्या तैय्यब, ‘भारत छोड़ो’ का नारा देने वाले युसुफ मेहर अली, सन् 1921 में ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है ‘ लिखने वाले बिस्मिल अजीमाबादी, तराना-ए-हिन्द ‘ सारे जहाँ से अच्छा,हिन्दुस्ता हमारा ‘ लिखने वाले अल्लामा इकबाल – ये सब के सब भारतीय मुसलमान थे लेकिन विडंबना देखिए कि आज भारतीय मुसलमानों को ही देशभक्ति का पाठ पढ़ाया जा रहा है .
इस मसले को लेकर पढ़ें लिखे भारतीय मुसलमानों का भी ढुलमुल रवैया रहा है कि जिस स्तर पर आजादी में इस्लामीक विद्वानों के भूमिका पर लिखा व बोला जाना चाहिए था वो नहीं हो पाया है जिनका परिणाम यह है कि आरएसएस हल्के में ले रहा है . अगर इस विषय पर मजबूती से लिखा-बोला जाता तो कक्षा चतुर्थ से दशम तक के सामाजिक विज्ञान की पुस्तकों में महात्मा गांधी, नेहरू के साथ सिर्फ मौलाना अबुल कलाम आजाद के ही नाम नहीं रहते बल्कि और भी कई इस्लामी विद्वानों के नाम विस्तार से उल्लेख रहता .यह दुर्भाग्य की बात है कि आज देशभक्त इस्लामी विद्वानों को नज़र अन्दाज़ कर दिया जा रहा है ।
सुलतान टिपु शहीद ( 1750-1799 ) , शाह वलीउल्लाह मोहद्दिस देहलवी ( 1703-1760 ) , सिराजुल हिन्द अब्दुल अजीज ( 1746-1760 ) , शाह इसमाईल शहीद देहलवी ( 1779-1831 ), बहादुर शाह जफर ( 1775-1862 ), अल्लामा फजले हक खैराबादी ( 1797-1861 ), मौलाना कासिम नानौतवी ( 1832-1880 ), शेखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन देओबंदी ( 1851-1920 ), मौलाना अली जौहर ( 1878-1931 ), मौलाना शौकत अली ( 1873-1933 ), मौलाना बरकातुल्लाह ( 1862-1927 ), मौलाना अशरफ अली ( 1864-1943 ), शेखुल इस्लाम मौलाना हुसैन अहमद मदनी ( 1879-1957 ) व और कई आजादी के योद्धा है जिसने आजादी की लड़ाई में ब्रिटिश के खिलाफ बहुत अहम भूमिका अदा किया और कई उलेमा शहीद हो गए।
दारुल उलुम देवबंद ( स्थापना- 1867 ) व बरेली के उलेमा ने न केवल द्वि- राष्ट्र के सिद्धांतों का विरोध किया बल्कि आजादी के लड़ाई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ( स्थापना- 1885 ) का मजबूती के साथ समर्थन भी किया। दारुल उलुम देवबंद के मशहूर इस्लामी विद्वान मौलाना हुसैन मदनी व महमूद हसन देओबंदी ने भारतीय उलेमा का समुह बनाकर मिस्टर अली जिनाह के द्वि- राष्ट्र सिद्धांत का प्रखर विरोध किया और इसी भारत की सर- जमीं पर जिने मरने का कसम खा ली। जब सन् 1916-20 में जंगे-आजादी की बिगुल देश के हर हिस्सों में बजने लगी थी तभी ब्रिटिश सरकार ने मौलाना हुसैन मदनी व महमूद हसन देओबंदी के साथ सैकड़ों उलेमा को पकड़ कर मालटा के जेल में डाल दिया था . मौलाना सेय्यद मोहम्मद मियाँ की लिखी किताब ” द प्रिजनर्स आफ मालटा ” में मालटा के जेलो में उलेमा द्वारा गुजारे चार साल ( 1916-1920 ) तक का विवरण विस्तार से उल्लेख किया गया है।
मालटा के जेल से रिहाई के बाद मौलाना हुसैन मदनी व महमूद हसन देओबंदी ने दोगुने जोश व खरोश के साथ लाखों इस्लामी विद्वानों को इकट्ठा कर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बिगुल बजा दिया।
1930 और 1940 की दहाई में जब जंगे-आजादी पूरी सबाब पर थी तो सन् 1937 में दिल्ली में आयोजित राजनीतिक महासम्मेलन में मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने विशाल जन – सभाओं में भव्य जन-समूहों को साफ शब्दों में सम्बोधित करते हुए कहा -” आज की तारीख में कौमिन ( राष्ट्र ) , वतन ( मातृभूमि ) पर आधारित है न कि मजहब पर और यहाँ पर रहने वाले हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब हिन्दुस्तानी हैं और इस मादरे-वतन की रक्षा के लिए कुरबानी देना हर हिन्दुस्तानी का फर्ज है ”
दारुल उलुम देवबंद ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ फतवा जारी कर भूचाल मचा दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय मुसलमान दोगुनी ताकत के साथ ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन जारी कर दिया और लाखों भारतीय को शहीद कर दिया गया ।
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सन् 1803 से 1947 के अन्तराल में कई इस्लामी विद्वानों की गिरफ्तारी हुई, क्रुर यातनाएं दि गई और लाखों शहीद कर दिये गये लेकिन विडंबना देखिए कि आज मदरसों के लिए निर्देश जारी कर भारतीय मुसलमानों से देशभक्ति होने के सबूत मांगा जा रहा है .
लेकिन इतिहास गवाह है कि भारत की स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास भारतीय इस्लामी विद्वान व मुसलमानों के इतिहास के बिना अधूरा है।
लेखक अफ्फान नोमानी, रिसर्च स्कॉलर व स्तम्भकार है और साथ ही एनआर साइंस सेंटर, कम्प्रेहैन्सिव एंड ऑब्जेक्टिव स्टडीज , हैदराबाद से भी जुड़े हैं )
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